यहाँ प्रेमी युगल भी
थोड़ा सुकून से बैठते हैं और दुनिया भर की तू-तू मैं-मैं से दूर प्यार की दो बातें
करते हैं। दिल्ली की इस भीड़-भाड़ में अब ठीक से रूठना मनाना भी तो नहीं हो पाता
है और अगर ऐसा कुछ होता भी है तो मोबाइल पर होता है। प्रेमिका अगर रूठ जाती है तो
मोबाइल स्विच ऑफ कर देती है, अब बेचारा प्रेमी उसे मनाए भी तो कैसे। खैर ये इतवार
की छुट्टी और यह लोधी गार्डन प्यार को जगाए रखने की पूरी सहूलियत देता है। यहाँ
जितनी तरह की वनस्पतियां हैं उतनी ही तरह के लोग भी आते हैं। सभी जमीन पर बैठ कर
खाना खाते हैं। यहाँ भीड़ तो खूब होती है लेकिन कोई भी आपकी खाने पीने की निजता पर
हमला नहीं करता है। ऐसी जगहें वाकई में थोड़ी देर के लिए दुनिया दारी को भुला देती
हैं। यहाँ बैठकर प्यार के दो पल बिताना बहुत अच्छा है लेकिन यह पल बैठकर बिताए
जाएं तो ज्यादा अच्छा है। पार्क को बेडरूम बना देना भी ठीक नहीं है। हो सकता है कि
यह बात मुझे ही अजीब लगती हो क्योंकि मैं गाँव का रहने वाला एक सामान्य व्यक्ति
हूँ लेकिन मैने एक से एक मॉडर्न मां बाप को भी अपने बच्चों का ध्यान उधर से हटाने
की कोशिश करते हुए देखा है। बच्चों को झाड़ियों की तरफ से जबरदस्ती खींच कर खुले
में ले जाते हुए देखा है। वो तो काफी मॉडर्न हैं फिर भी पता नहीं क्यों असहज महसूस
करते थे। लोकतंत्र अपनी जगह है और सबकी भावनाएं अपनी जगह हैं। खैर बरदाश्त करना भी
लोकतंत्र को मजबूत करने का रास्ता हो सकता है। शायद यही कारण है कि यहाँ अमन
बरकरार है। काश हमारा देश भी इसी पार्क की तरह हो जाता जहाँ कोई किसी की निजी
ज़िंदगी में दखल भी न देता और थोड़ा बहुत दूसरों को बरदाश्त भी कर लेता। ये आधा
इतवार बहुत कुछ सिखा गया।
मंगलवार, 3 नवंबर 2015
आधा इतवार
बुधवार, 12 अगस्त 2015
हंगामा है क्यूँ बरपा
जिस तरह से विभिन्न समाचार
चैनल मनोरंजन के साधन बन गए हैं उसी तरह राज्यसभा चैनल भी दर्शकों का भरपूर मनोरंजन
कर रहा है। रोज संसद में हंगामा होता है। विपक्ष का उत्तरदायित्व केवल हंगामा करना
रह गया है। पिछले दिनों भूमि अधिग्रहण बिल पर हंगामा होता रहा और अब जी.एस.टी. विपक्ष के निशाने पर है।
लोकतंत्र में विरोध होना भी आवश्यक है लेकिन उसका मतलब काम ना करना बिल्कुल नहीं
है। दुष्यंत कुमार की कुछ पंक्तियां याद आती हैं“ सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़्सद नहीं, शर्त
मेरी है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।“ हमारे यहाँ सांसदों की सूरत बदल जाती है लेकिन काम नहीं
बदलता है। आज जो सत्ता में हैं कल अगर वो भी विपक्ष में होंगे तो वही काम करेंगे।
यह एक रिवाज़ बन गया है।
संसद भवन के बाहर भी हंगामा
करने की पर्याप्त जगह होती है, लेकिन ए.सी. में बैठकर और कैमरे की निगाह में हंगामा करने का मजा ही
कुछ और है। जनता के बीच जाने से किसी भी इज्जतदार व्यक्ति की इज्जत का फलूदा बन
सकता है। संसद में हंगामा करने से कुछ टी.वी. चैनलों पर चेहरा भी दिख जाता है। हो सकता है कि तस्वीर
अगले दिन के अखबार में भी आ जाए। अगर संसद में जाकर हंगामा ही खड़ा करना होता है
तब तो कोई भी यह काम बड़ी संजीदगी से कर सकता है। कुछ जनता की अपेक्षाओं का भी
ध्यान रखा जाए तो बात बने। हर पाँच साल में सांसदों की सूरत बदलनी ही आवश्यक नहीं
है बल्कि संसद के कामकाज का तरीका भी थोड़ा बदलना चाहिए।
सोमवार, 6 जुलाई 2015
लेट लपेट
मंगलवार, 23 जून 2015
हम ही नवोदय हों
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