जिस तरह से विभिन्न समाचार
चैनल मनोरंजन के साधन बन गए हैं उसी तरह राज्यसभा चैनल भी दर्शकों का भरपूर मनोरंजन
कर रहा है। रोज संसद में हंगामा होता है। विपक्ष का उत्तरदायित्व केवल हंगामा करना
रह गया है। पिछले दिनों भूमि अधिग्रहण बिल पर हंगामा होता रहा और अब जी.एस.टी. विपक्ष के निशाने पर है।
लोकतंत्र में विरोध होना भी आवश्यक है लेकिन उसका मतलब काम ना करना बिल्कुल नहीं
है। दुष्यंत कुमार की कुछ पंक्तियां याद आती हैं“ सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़्सद नहीं, शर्त
मेरी है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।“ हमारे यहाँ सांसदों की सूरत बदल जाती है लेकिन काम नहीं
बदलता है। आज जो सत्ता में हैं कल अगर वो भी विपक्ष में होंगे तो वही काम करेंगे।
यह एक रिवाज़ बन गया है।
संसद भवन के बाहर भी हंगामा
करने की पर्याप्त जगह होती है, लेकिन ए.सी. में बैठकर और कैमरे की निगाह में हंगामा करने का मजा ही
कुछ और है। जनता के बीच जाने से किसी भी इज्जतदार व्यक्ति की इज्जत का फलूदा बन
सकता है। संसद में हंगामा करने से कुछ टी.वी. चैनलों पर चेहरा भी दिख जाता है। हो सकता है कि तस्वीर
अगले दिन के अखबार में भी आ जाए। अगर संसद में जाकर हंगामा ही खड़ा करना होता है
तब तो कोई भी यह काम बड़ी संजीदगी से कर सकता है। कुछ जनता की अपेक्षाओं का भी
ध्यान रखा जाए तो बात बने। हर पाँच साल में सांसदों की सूरत बदलनी ही आवश्यक नहीं
है बल्कि संसद के कामकाज का तरीका भी थोड़ा बदलना चाहिए।