निर्मल गंगा एक ऐसा विषय है जिसके बारे में विचार और सरकार से अपेक्षाएं तो सभी करते हैं लेकिन कहीं न कहीं अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं। मैं बात कर रहा हूं, मां और पाप विनाशिनी कही जाने वाली देश की सबसे पवित्र नदी गंगा की। हम मां गंगा की पूजा भी करते हैं और हमारे धार्मिक ग्रंथों में भी गंगा की महिमा का गुणगान किया गया है। कहा जाता है कि गंगा जल को लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है क्योंकि इसमें बैक्टीरिया असर नहीं कर पाते। फिर भी जब हम आज गंगा की दुर्दशा देखते हैं तो मन भर आता है। गंगा ही क्यों देश की लगभग सभी नदियों का यही हाल है। हमने अपने स्वार्थ की वजह से लाखों लोगों और जलीय जीवों को जीवन देने वाली गंगा को अपवित्र कर दिया।
हमें एक बार गंगा के उद्गम स्थल को जरूर देखना चाहिए। उत्तराखंड के पहाड़ों में निर्मल जलधारा वाली कलकल करती गंगा लगता है जैसे अभी बोल पड़ेंगी कि देखो यह है मेरा बचपन लेकिन मनुष्य ने निजी स्वार्थों के चलते मेरे यौवन को छीन लिया। गंगोत्री से निकलकर गंगा जब ऋषिकेश पहुंचती हैं तो इनका आकार थोड़ा विस्तृत हो जाता है। आप जब गंगा के किनारे खड़े होकर जल की ओर देखेंगे तो नदी के भीतर के पत्थर साफ-साफ गिने जा सकते हैं। लेकिन याद करिए कि अगर आपने उसी गंगा को कानपुर या इलाहाबाद में देखा हो। यहां आप पाप धोने के नाम पर स्नान तो कर लेते हैं लेकिन वही जल अगर पीने को कह दिया जाए तो शायद आप भी बचकर निकल जाएंगे। आखिर गंगा का यह हाल किसने किया? किसी और ने नहीं बल्कि हमने और आपने। गंगा समेत सभी नदियों की सफाई की जिम्मेदारी भी हमारी ही है। ऋषिकेश के बाद हरिद्वार में गंगा मैदानी भाग में प्रवेश करती हैं। यहां बहुत सारे श्रद्धालु निर्मल गंगा में स्नान करने के लिए आते हैं। हरिद्वार में शाम को गंगा की भव्य आरती भी होती है लेकिन हमें यहीं से आस्था के नाम पर गंगा के साथ खिलवाड़ नजर आने लगता है। हम श्रद्धा के नाम पर गंगा में फूल, पॉलिथीन, पत्ते आदि फेंकने लगते हैं। गंगा में स्नान करने के बाद लोग इसमें अपने कपड़े भी धोते हैं। क्या उस समय उन्हें गंगा में मां नजर नहीं आती? हम युवाओं की ही जिम्मेदारी है कि आस्था के नाम पर गंगा में ऐसी चीजें न डालने के लिए लोगों को जागरूक करें और जब कभी किसी धार्मिक स्थान पर जाएं तो सबसे पहले स्वयं को नदियों की सफाई के लिए प्रेरित करें। हम कई बार बड़े-बड़े कल कारखानों से निकलने वाली गंदगी पर विचार करते हैं लेकिन यह नहीं सोच पाते कि अपने स्तर पर हमें क्या सावधानी रखनी चाहिए जिससे गंगा जैसी नदियां साफ सुथरी रहें।
दोस्तों, साफ सफाई की आदत हमें अपने अंदर ही पैदा करनी है और इसके बाद दूसरों को भी इसके प्रति सचेत करना है। पहले क्या हुआ उसपर केवल सोचने और लोगों को कोसने से बेहतर है कि हमें अब क्या करना चाहिए उसपर विचार किया जाए। हमें साफ दिखाई दे रहा है कि वर्तमान पीढ़ी को पहले की पीढ़ी की असावधानी का परिणाम भुगतना पड़ रहा है। इसलिए विचार करना जरूरी है कि आगे की पीढ़ियों को हमारी गलतियों का दुष्परिणाम न भुगतना पड़े। अगर हम अभी सावधान नहीं हुए तो बहुत दिनों तक पवित्र नदी गंगा हमारे साथ नहीं रहेंगी। दोस्तों हमें ध्यान रखना होगा कि अगर हम कभी भी किसी नदी के किनारे जाते हैं तो न केवल नदी में बल्कि आसपास भी किसी तरह का वेस्ट मटीरियल नहीं फेंकना है। सबसे ज्यादा दूरी तो पॉलिथीन से बनानी होगी क्योंकि इसका जैविक अपघटन भी नहीं हो पता है और यह जल के अंदर ऑक्सिजन की मात्रा को कम कर देती है। इसके बाद जलीय जीवों के जीवन के लिए संकट पैदा हो जाता है। नदियों की सफाई के लिए आवश्यक है कि जलीय जंतुओं का संतुलन भी बना रहे। आज हमारी नदियों का जल इस काबिल नहीं रह गया है कि इसमें ज्यादा जलीय जीव जीवित रह पाएं। उद्योगों के केमिकल की वजह से पानी जहरीला हो गया है। सोचिए कि ऋषिकेश में जिस जल को हम बिना हिचकिचाहट के पी सकते हैं आगे चलकर उसे छूने से भी परहेज क्यों?
मैं एक व्यक्तिगत अनुभव साझा करता हूं। एक बार मैं गोमती नदी के किनारे एक साधु से मिला। उन्होंने बताया कि वह कभी नदी में स्नान नहीं करते हैं जबकि उनका निवास स्थान बिल्कुल नदी के किनारे है। वजह पूछने पर वो कहने लगे कि हम नदी को मां मानते हैं और इसलिए नदी में किसी तरह के मल का त्याग नहीं कर सकते चाहे वह हमारे शरीर की मैल ही क्यों न हो। उन्होंने बताया था कि जब वो पूजा करने के लिए नदी में उतरते हैं तो पहले बाहर हैंड पंप में पैर धोते हैं औऱ फिर नदी में उतरते हैं। तबसे मैं सोच रहा हूं कि अगर देश के 90 प्रतिशत लोग भी उनकी तरह सोचने लगें तो नदियों की हालत सुधरने में देर नहीं लगेगी। विडंबना यह है कि हम सरकार के कदमों के इंतजार में खुद को ही नहीं सुधार रहे हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि प्रशासन उद्योगों के लिए नियम बना सकता है लेकिन हमारे व्यक्तिगत जीवन से जुड़े नियम हमें ही बनाने होंगे और उनका पालन भी करना होगा। जिस देश की संस्कृति में नदियों को मां का दर्जा दिया गया वहीं नदियों की इतनी बुरी हालत होना हमारे लिए शर्म की बात है। लेकिन अगर हमारे युवा साथी चाहें तो पूरा माहौल बदला जा सकता है और नदियों को उनका वास्तवकि स्वरूप लौटाया जा सकता है। हिमालय में जाकर निर्मल गंगा के दर्शन के लिए सभी पैसा खर्च करके वहां पहुंचना चाहते हैं तो हम ऐसा क्यों नहीं करते कि आसपास ही निर्मल गंगा के दर्शन हों। जैसा निर्मल जल वहां बहता है वैसा ही हम तक भी पहुंचे।
कभी मौका मिले तो पहाड़ से निकलते झरने को देखिए, छोटी छोटी नदियों को देखिए और विचार कीजिए कि प्रकृति ने हमारे लिए कितने उम्दा इंतजाम किए हैं। जल का संचय करने के लिए ग्लेशियर बनाए, जल हमतक पहुंचाने के लिए झरने और नदियां बनाईं लेकिन हमने प्रकृति की सारी व्यवस्था बिगाड़ दी। हमें सोचना चाहिए कि यह सारी चीजें आखिर हमारे लिए ही तो हैं तो उन्हें संभालकर रखना किसकी जिम्मेदारी है। अपने स्वार्थ के लिए हमने प्रकृति का इतना दोहन किया कि आज सारा संतुलन ही बिगड़ गया है। हमें गंगा को आस्था और श्रद्धा के साथ मानवता के नजरिए से भी देखना होगा। गंगा के प्रति हमारे दायित्वों का अहसास करना होगा और उस दिशा में सार्थक कदम उठाने होंगे। हम जितना समय अपने भविष्य को संवारने में लगाना चाहते हैं उसमें से थोड़ा सा प्रकृति और गंगा के भविष्य को भी देना होगा। लगभग सभी बड़े शहरों के किनारे कोई न कोई नदी जरूर बहती है। हम उसी शहर में रहते हैं और अपने भविष्य के लिए भागदौड़ करते रहते हैं लेकिन उसी शहर में बह रही नदी की दुर्दशा को नजरअंदाज कर देते हैं। अगर आज का युवा इस बात को समझ जाए कि हमें अपने अमूल्य समय से थोड़ा समय सामूहिक रूप से नदियों की सफाई के लिए देना है तो अन्य लोग भी उनके इस अभियान के साथ जरूर जुड़ेंगे। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ को नजरअंदाज कर देना ही सबसे ज्यादा खतरनाक है। आज नदियों में जल की जगह रसायन बह रहे हैं और हम भी उनमें गंदगी डालकर पाप के भागी बन रहे हैं। आस्था के नाम पर नदियों को अपवित्र कर रहे हैं। धार्मिक क्रिया कर्मों को भी जरा वैज्ञानिक ढंग से सोचने की जरूरत है। पहले लोगो नदियों में तांबे के सिक्के डाल दिया करते थे। तांबा जल को साफ रखने में मदद करता है। लेकिन आज हम आधुनिक सिक्कों को नदियों में क्यों फेकते हैं जबकि वे तांबे के नहीं हैं। इन बातों पर विचार किए बिना श्रद्धा के नाम पर कुछ भी करने से हमें बचना भी चाहिए और ऐसा करने वाले लोगों को भी तर्क से समझाने का प्रयास करना चाहिए, चाहे वे हमसे बड़े ही क्यों न हों।
पहले लोग भले ही इतना पढ़े लिखे न रहे हों लेकिन आज की पीढ़ी शिक्षा की ओर आगे बढ़ रही है। इस शिक्षा का सही इस्तेमाल करना भी हमारा दायित्व है। किताबी ज्ञान के अलावा जीवन में इसका इस्तेमाल करने से ही हम अंधविश्वास और लापरवाही से खुद को अलग कर पाएंगे और निर्मल गंगा के लक्ष्य को भी हासिल कर पाएंगे। हमें आज से ही संकल्प लेना होगा कि हम व्यक्तिगत तौर पर गंगा में किसी भी तरह की गंदगी का निपटान नहीं करेंगे और इसके आसपास भी सफाई में पूरा योगदान देंगे। इसके बाद अगर संभव हो पाता है तो लोगों को साथ जोड़कर गंगा की सफाई और इसके प्रति जागरूकता के अभियान में योगदान देंगे। अगर हमने गंगा को मां का दर्जा दिया है तो उनकी प्रतिष्ठा का खयाल भी हमें ही रखना होगा।
हमें एक बार गंगा के उद्गम स्थल को जरूर देखना चाहिए। उत्तराखंड के पहाड़ों में निर्मल जलधारा वाली कलकल करती गंगा लगता है जैसे अभी बोल पड़ेंगी कि देखो यह है मेरा बचपन लेकिन मनुष्य ने निजी स्वार्थों के चलते मेरे यौवन को छीन लिया। गंगोत्री से निकलकर गंगा जब ऋषिकेश पहुंचती हैं तो इनका आकार थोड़ा विस्तृत हो जाता है। आप जब गंगा के किनारे खड़े होकर जल की ओर देखेंगे तो नदी के भीतर के पत्थर साफ-साफ गिने जा सकते हैं। लेकिन याद करिए कि अगर आपने उसी गंगा को कानपुर या इलाहाबाद में देखा हो। यहां आप पाप धोने के नाम पर स्नान तो कर लेते हैं लेकिन वही जल अगर पीने को कह दिया जाए तो शायद आप भी बचकर निकल जाएंगे। आखिर गंगा का यह हाल किसने किया? किसी और ने नहीं बल्कि हमने और आपने। गंगा समेत सभी नदियों की सफाई की जिम्मेदारी भी हमारी ही है। ऋषिकेश के बाद हरिद्वार में गंगा मैदानी भाग में प्रवेश करती हैं। यहां बहुत सारे श्रद्धालु निर्मल गंगा में स्नान करने के लिए आते हैं। हरिद्वार में शाम को गंगा की भव्य आरती भी होती है लेकिन हमें यहीं से आस्था के नाम पर गंगा के साथ खिलवाड़ नजर आने लगता है। हम श्रद्धा के नाम पर गंगा में फूल, पॉलिथीन, पत्ते आदि फेंकने लगते हैं। गंगा में स्नान करने के बाद लोग इसमें अपने कपड़े भी धोते हैं। क्या उस समय उन्हें गंगा में मां नजर नहीं आती? हम युवाओं की ही जिम्मेदारी है कि आस्था के नाम पर गंगा में ऐसी चीजें न डालने के लिए लोगों को जागरूक करें और जब कभी किसी धार्मिक स्थान पर जाएं तो सबसे पहले स्वयं को नदियों की सफाई के लिए प्रेरित करें। हम कई बार बड़े-बड़े कल कारखानों से निकलने वाली गंदगी पर विचार करते हैं लेकिन यह नहीं सोच पाते कि अपने स्तर पर हमें क्या सावधानी रखनी चाहिए जिससे गंगा जैसी नदियां साफ सुथरी रहें।
दोस्तों, साफ सफाई की आदत हमें अपने अंदर ही पैदा करनी है और इसके बाद दूसरों को भी इसके प्रति सचेत करना है। पहले क्या हुआ उसपर केवल सोचने और लोगों को कोसने से बेहतर है कि हमें अब क्या करना चाहिए उसपर विचार किया जाए। हमें साफ दिखाई दे रहा है कि वर्तमान पीढ़ी को पहले की पीढ़ी की असावधानी का परिणाम भुगतना पड़ रहा है। इसलिए विचार करना जरूरी है कि आगे की पीढ़ियों को हमारी गलतियों का दुष्परिणाम न भुगतना पड़े। अगर हम अभी सावधान नहीं हुए तो बहुत दिनों तक पवित्र नदी गंगा हमारे साथ नहीं रहेंगी। दोस्तों हमें ध्यान रखना होगा कि अगर हम कभी भी किसी नदी के किनारे जाते हैं तो न केवल नदी में बल्कि आसपास भी किसी तरह का वेस्ट मटीरियल नहीं फेंकना है। सबसे ज्यादा दूरी तो पॉलिथीन से बनानी होगी क्योंकि इसका जैविक अपघटन भी नहीं हो पता है और यह जल के अंदर ऑक्सिजन की मात्रा को कम कर देती है। इसके बाद जलीय जीवों के जीवन के लिए संकट पैदा हो जाता है। नदियों की सफाई के लिए आवश्यक है कि जलीय जंतुओं का संतुलन भी बना रहे। आज हमारी नदियों का जल इस काबिल नहीं रह गया है कि इसमें ज्यादा जलीय जीव जीवित रह पाएं। उद्योगों के केमिकल की वजह से पानी जहरीला हो गया है। सोचिए कि ऋषिकेश में जिस जल को हम बिना हिचकिचाहट के पी सकते हैं आगे चलकर उसे छूने से भी परहेज क्यों?
मैं एक व्यक्तिगत अनुभव साझा करता हूं। एक बार मैं गोमती नदी के किनारे एक साधु से मिला। उन्होंने बताया कि वह कभी नदी में स्नान नहीं करते हैं जबकि उनका निवास स्थान बिल्कुल नदी के किनारे है। वजह पूछने पर वो कहने लगे कि हम नदी को मां मानते हैं और इसलिए नदी में किसी तरह के मल का त्याग नहीं कर सकते चाहे वह हमारे शरीर की मैल ही क्यों न हो। उन्होंने बताया था कि जब वो पूजा करने के लिए नदी में उतरते हैं तो पहले बाहर हैंड पंप में पैर धोते हैं औऱ फिर नदी में उतरते हैं। तबसे मैं सोच रहा हूं कि अगर देश के 90 प्रतिशत लोग भी उनकी तरह सोचने लगें तो नदियों की हालत सुधरने में देर नहीं लगेगी। विडंबना यह है कि हम सरकार के कदमों के इंतजार में खुद को ही नहीं सुधार रहे हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि प्रशासन उद्योगों के लिए नियम बना सकता है लेकिन हमारे व्यक्तिगत जीवन से जुड़े नियम हमें ही बनाने होंगे और उनका पालन भी करना होगा। जिस देश की संस्कृति में नदियों को मां का दर्जा दिया गया वहीं नदियों की इतनी बुरी हालत होना हमारे लिए शर्म की बात है। लेकिन अगर हमारे युवा साथी चाहें तो पूरा माहौल बदला जा सकता है और नदियों को उनका वास्तवकि स्वरूप लौटाया जा सकता है। हिमालय में जाकर निर्मल गंगा के दर्शन के लिए सभी पैसा खर्च करके वहां पहुंचना चाहते हैं तो हम ऐसा क्यों नहीं करते कि आसपास ही निर्मल गंगा के दर्शन हों। जैसा निर्मल जल वहां बहता है वैसा ही हम तक भी पहुंचे।
कभी मौका मिले तो पहाड़ से निकलते झरने को देखिए, छोटी छोटी नदियों को देखिए और विचार कीजिए कि प्रकृति ने हमारे लिए कितने उम्दा इंतजाम किए हैं। जल का संचय करने के लिए ग्लेशियर बनाए, जल हमतक पहुंचाने के लिए झरने और नदियां बनाईं लेकिन हमने प्रकृति की सारी व्यवस्था बिगाड़ दी। हमें सोचना चाहिए कि यह सारी चीजें आखिर हमारे लिए ही तो हैं तो उन्हें संभालकर रखना किसकी जिम्मेदारी है। अपने स्वार्थ के लिए हमने प्रकृति का इतना दोहन किया कि आज सारा संतुलन ही बिगड़ गया है। हमें गंगा को आस्था और श्रद्धा के साथ मानवता के नजरिए से भी देखना होगा। गंगा के प्रति हमारे दायित्वों का अहसास करना होगा और उस दिशा में सार्थक कदम उठाने होंगे। हम जितना समय अपने भविष्य को संवारने में लगाना चाहते हैं उसमें से थोड़ा सा प्रकृति और गंगा के भविष्य को भी देना होगा। लगभग सभी बड़े शहरों के किनारे कोई न कोई नदी जरूर बहती है। हम उसी शहर में रहते हैं और अपने भविष्य के लिए भागदौड़ करते रहते हैं लेकिन उसी शहर में बह रही नदी की दुर्दशा को नजरअंदाज कर देते हैं। अगर आज का युवा इस बात को समझ जाए कि हमें अपने अमूल्य समय से थोड़ा समय सामूहिक रूप से नदियों की सफाई के लिए देना है तो अन्य लोग भी उनके इस अभियान के साथ जरूर जुड़ेंगे। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ को नजरअंदाज कर देना ही सबसे ज्यादा खतरनाक है। आज नदियों में जल की जगह रसायन बह रहे हैं और हम भी उनमें गंदगी डालकर पाप के भागी बन रहे हैं। आस्था के नाम पर नदियों को अपवित्र कर रहे हैं। धार्मिक क्रिया कर्मों को भी जरा वैज्ञानिक ढंग से सोचने की जरूरत है। पहले लोगो नदियों में तांबे के सिक्के डाल दिया करते थे। तांबा जल को साफ रखने में मदद करता है। लेकिन आज हम आधुनिक सिक्कों को नदियों में क्यों फेकते हैं जबकि वे तांबे के नहीं हैं। इन बातों पर विचार किए बिना श्रद्धा के नाम पर कुछ भी करने से हमें बचना भी चाहिए और ऐसा करने वाले लोगों को भी तर्क से समझाने का प्रयास करना चाहिए, चाहे वे हमसे बड़े ही क्यों न हों।
पहले लोग भले ही इतना पढ़े लिखे न रहे हों लेकिन आज की पीढ़ी शिक्षा की ओर आगे बढ़ रही है। इस शिक्षा का सही इस्तेमाल करना भी हमारा दायित्व है। किताबी ज्ञान के अलावा जीवन में इसका इस्तेमाल करने से ही हम अंधविश्वास और लापरवाही से खुद को अलग कर पाएंगे और निर्मल गंगा के लक्ष्य को भी हासिल कर पाएंगे। हमें आज से ही संकल्प लेना होगा कि हम व्यक्तिगत तौर पर गंगा में किसी भी तरह की गंदगी का निपटान नहीं करेंगे और इसके आसपास भी सफाई में पूरा योगदान देंगे। इसके बाद अगर संभव हो पाता है तो लोगों को साथ जोड़कर गंगा की सफाई और इसके प्रति जागरूकता के अभियान में योगदान देंगे। अगर हमने गंगा को मां का दर्जा दिया है तो उनकी प्रतिष्ठा का खयाल भी हमें ही रखना होगा।