शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

निर्मल गंगाः उम्मीद ज्यादा लेकिन कर्तव्यों से भाग रहे हैं हम (एक रेडियो संवाद)

 निर्मल गंगा एक ऐसा विषय है जिसके बारे में विचार और सरकार से अपेक्षाएं तो सभी करते हैं लेकिन कहीं न कहीं अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं। मैं बात कर रहा हूं, मां और पाप विनाशिनी कही जाने वाली देश की सबसे पवित्र नदी गंगा की। हम मां गंगा की पूजा भी करते हैं और हमारे धार्मिक ग्रंथों में भी गंगा की महिमा का गुणगान किया गया है। कहा जाता है कि गंगा जल को लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है क्योंकि इसमें बैक्टीरिया असर नहीं कर पाते। फिर भी जब हम आज गंगा की दुर्दशा देखते हैं तो मन भर आता है। गंगा ही क्यों देश की लगभग सभी नदियों का यही हाल है। हमने अपने स्वार्थ की वजह से लाखों लोगों और  जलीय जीवों को जीवन देने वाली गंगा को अपवित्र कर दिया।

हमें एक बार गंगा के उद्गम स्थल को जरूर देखना चाहिए। उत्तराखंड के पहाड़ों में निर्मल जलधारा वाली कलकल करती गंगा लगता है जैसे अभी बोल पड़ेंगी कि देखो यह है मेरा बचपन लेकिन मनुष्य ने निजी स्वार्थों के चलते मेरे यौवन को छीन लिया। गंगोत्री से निकलकर गंगा जब ऋषिकेश पहुंचती हैं तो इनका आकार थोड़ा विस्तृत हो जाता है। आप जब गंगा के किनारे खड़े होकर जल की ओर देखेंगे तो नदी के भीतर के पत्थर साफ-साफ गिने जा सकते हैं। लेकिन याद करिए कि अगर आपने उसी गंगा को कानपुर या इलाहाबाद में देखा  हो। यहां आप पाप धोने के नाम पर स्नान तो कर लेते हैं लेकिन वही जल अगर पीने को कह दिया जाए तो शायद आप भी बचकर निकल जाएंगे। आखिर गंगा का यह हाल किसने किया? किसी और ने नहीं बल्कि हमने और आपने। गंगा समेत सभी नदियों की सफाई की जिम्मेदारी भी हमारी ही है। ऋषिकेश के बाद हरिद्वार में गंगा मैदानी भाग में प्रवेश करती हैं। यहां बहुत सारे श्रद्धालु निर्मल गंगा में स्नान करने के लिए आते हैं। हरिद्वार में शाम को गंगा की भव्य आरती भी होती है लेकिन हमें यहीं से आस्था के नाम पर गंगा के साथ खिलवाड़ नजर आने लगता है। हम श्रद्धा के नाम पर गंगा में फूल, पॉलिथीन, पत्ते आदि फेंकने लगते हैं। गंगा में स्नान करने के बाद लोग इसमें अपने कपड़े भी धोते हैं। क्या उस समय उन्हें गंगा में मां नजर नहीं आती? हम युवाओं की ही जिम्मेदारी है कि आस्था के नाम पर गंगा में ऐसी चीजें न डालने के लिए लोगों को जागरूक करें और जब कभी किसी धार्मिक स्थान पर जाएं तो सबसे पहले स्वयं को नदियों की सफाई के लिए प्रेरित करें। हम कई बार बड़े-बड़े कल कारखानों से निकलने वाली गंदगी  पर विचार करते हैं लेकिन यह नहीं सोच पाते कि अपने स्तर पर हमें क्या सावधानी रखनी चाहिए जिससे गंगा जैसी नदियां साफ सुथरी रहें।

दोस्तों, साफ सफाई की आदत हमें अपने अंदर ही पैदा करनी है और इसके बाद दूसरों को भी इसके प्रति सचेत करना है। पहले क्या हुआ उसपर केवल सोचने और लोगों को कोसने से बेहतर है कि हमें अब क्या करना चाहिए उसपर विचार किया जाए। हमें साफ दिखाई दे रहा है कि वर्तमान पीढ़ी को पहले की पीढ़ी की असावधानी का परिणाम भुगतना पड़ रहा है। इसलिए विचार करना जरूरी है कि आगे की पीढ़ियों को हमारी गलतियों का दुष्परिणाम न भुगतना पड़े। अगर हम अभी सावधान नहीं हुए तो बहुत दिनों तक पवित्र नदी गंगा हमारे साथ नहीं रहेंगी। दोस्तों हमें ध्यान रखना होगा कि अगर हम कभी भी किसी नदी के किनारे जाते हैं तो न केवल नदी में बल्कि आसपास भी किसी तरह का वेस्ट मटीरियल नहीं फेंकना है। सबसे ज्यादा दूरी तो पॉलिथीन से बनानी होगी क्योंकि इसका जैविक अपघटन भी नहीं हो पता है और यह जल के अंदर ऑक्सिजन की मात्रा को कम कर देती है। इसके बाद जलीय जीवों के जीवन के लिए संकट पैदा हो जाता है। नदियों की सफाई के लिए आवश्यक है कि जलीय जंतुओं का संतुलन भी बना रहे। आज हमारी नदियों का जल इस काबिल नहीं रह गया है कि इसमें ज्यादा जलीय जीव जीवित रह पाएं। उद्योगों के केमिकल की वजह से पानी जहरीला हो गया है। सोचिए कि ऋषिकेश में जिस जल को हम बिना हिचकिचाहट के पी सकते हैं आगे चलकर उसे छूने से भी परहेज क्यों?

  मैं एक व्यक्तिगत अनुभव साझा करता हूं। एक बार मैं गोमती नदी के किनारे एक साधु से मिला। उन्होंने बताया कि वह कभी नदी में स्नान नहीं  करते हैं जबकि उनका निवास स्थान बिल्कुल नदी के किनारे है। वजह पूछने पर वो कहने लगे कि हम नदी को मां मानते हैं और इसलिए नदी में किसी तरह के मल का त्याग नहीं कर सकते चाहे वह हमारे शरीर की मैल ही क्यों न हो। उन्होंने बताया था कि जब वो पूजा करने के लिए नदी में उतरते हैं तो पहले बाहर हैंड पंप में पैर धोते हैं औऱ फिर नदी में उतरते हैं। तबसे मैं सोच रहा हूं कि अगर देश के 90 प्रतिशत लोग भी उनकी तरह सोचने लगें तो नदियों की हालत सुधरने में देर  नहीं लगेगी। विडंबना यह है कि हम सरकार के कदमों के इंतजार में खुद को ही नहीं सुधार रहे हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि प्रशासन उद्योगों के लिए नियम बना सकता है लेकिन हमारे व्यक्तिगत  जीवन से जुड़े नियम हमें ही बनाने होंगे और उनका पालन भी करना होगा। जिस देश की संस्कृति में नदियों को मां का दर्जा दिया गया वहीं नदियों की  इतनी बुरी हालत होना हमारे लिए शर्म की बात है। लेकिन अगर हमारे युवा साथी चाहें तो पूरा माहौल बदला जा सकता है और नदियों को उनका वास्तवकि स्वरूप लौटाया जा सकता है। हिमालय में जाकर निर्मल गंगा के दर्शन के लिए सभी पैसा खर्च करके वहां पहुंचना चाहते हैं तो हम ऐसा क्यों नहीं करते कि आसपास ही निर्मल गंगा के दर्शन हों। जैसा निर्मल जल वहां बहता है वैसा ही हम तक भी  पहुंचे।

कभी मौका मिले तो पहाड़ से निकलते झरने को देखिए, छोटी छोटी नदियों को देखिए और विचार कीजिए कि प्रकृति ने हमारे लिए कितने उम्दा इंतजाम किए हैं। जल का संचय करने के लिए ग्लेशियर बनाए, जल हमतक पहुंचाने के लिए झरने और नदियां बनाईं लेकिन हमने प्रकृति की सारी व्यवस्था बिगाड़ दी। हमें सोचना चाहिए कि यह सारी चीजें आखिर हमारे लिए ही तो हैं तो उन्हें संभालकर रखना किसकी जिम्मेदारी है। अपने स्वार्थ के लिए हमने प्रकृति का  इतना दोहन किया कि आज सारा संतुलन ही बिगड़ गया है। हमें गंगा को आस्था और श्रद्धा के साथ मानवता के नजरिए से भी देखना होगा। गंगा के प्रति हमारे दायित्वों का अहसास करना होगा और उस दिशा में  सार्थक कदम उठाने होंगे। हम  जितना समय अपने भविष्य को संवारने में लगाना  चाहते हैं उसमें से थोड़ा सा प्रकृति और गंगा के भविष्य को भी देना होगा। लगभग  सभी बड़े शहरों के किनारे कोई न कोई नदी जरूर बहती है। हम उसी शहर में  रहते हैं और अपने भविष्य के लिए भागदौड़ करते रहते हैं लेकिन उसी शहर में बह रही नदी की दुर्दशा को  नजरअंदाज कर देते हैं। अगर आज का युवा इस  बात को समझ जाए कि हमें अपने अमूल्य समय से थोड़ा समय सामूहिक रूप से नदियों की सफाई के लिए देना है तो अन्य लोग भी उनके इस अभियान के साथ जरूर जुड़ेंगे। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ को नजरअंदाज कर देना ही सबसे ज्यादा खतरनाक है। आज नदियों में जल की जगह रसायन बह रहे हैं और हम भी उनमें गंदगी डालकर पाप के भागी बन रहे  हैं। आस्था के नाम पर नदियों को अपवित्र कर रहे हैं। धार्मिक क्रिया कर्मों को भी जरा वैज्ञानिक ढंग से सोचने की जरूरत है। पहले लोगो नदियों में तांबे के सिक्के डाल दिया करते थे। तांबा जल को साफ रखने में मदद करता है। लेकिन आज हम  आधुनिक सिक्कों को नदियों में क्यों फेकते हैं जबकि वे तांबे के नहीं हैं। इन  बातों पर विचार किए बिना श्रद्धा के नाम  पर कुछ भी करने से हमें बचना  भी चाहिए और ऐसा करने वाले लोगों को भी तर्क से समझाने का प्रयास करना चाहिए, चाहे वे हमसे बड़े ही क्यों न हों।

पहले लोग भले ही इतना पढ़े लिखे न रहे हों लेकिन आज की पीढ़ी शिक्षा की  ओर आगे बढ़ रही है। इस शिक्षा का सही इस्तेमाल करना भी हमारा दायित्व है। किताबी ज्ञान के अलावा जीवन में इसका इस्तेमाल करने से ही हम अंधविश्वास और लापरवाही से खुद को अलग कर पाएंगे और निर्मल गंगा के लक्ष्य को भी हासिल कर पाएंगे। हमें  आज से ही संकल्प लेना होगा कि हम व्यक्तिगत तौर पर गंगा में किसी भी तरह की गंदगी का निपटान नहीं करेंगे और इसके आसपास भी सफाई में पूरा योगदान देंगे। इसके बाद अगर संभव हो पाता है तो लोगों को साथ जोड़कर गंगा की सफाई और इसके प्रति जागरूकता के अभियान में योगदान देंगे। अगर हमने गंगा को मां का दर्जा दिया है तो उनकी प्रतिष्ठा का खयाल भी हमें ही रखना होगा। 

सोमवार, 30 मई 2016

ज्ञान का उफान

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Picture Credit: Thenextweb.com

सभी लोग अपने-अपने विषय के जानकार होते हैं। किसी विषय का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करना आसान नहीं है। ज्ञानार्जन एक लम्बी साधना है। पहले भी लोग ज्ञान प्राप्ति के लिए वर्षों साधना करते थे और गुरू की शरण में रहकर अपने विषय में महारथ हासिल करते थे। आज भी लोग जीवन पर्यंत पढ़ने-पढ़ाने के क्षेत्र में रहकर अनेक विषयों को गहराई में जाकर समझने की कोशिश करते हैं। जिनको ज्ञान होता है वे दूसरों को भी ज्ञान देते हैं। कहा भी जाता है कि विद्या ऐसी चीज है जो बांटने से बढ़ती है। आजकल ज्ञान देने से ज्यादा लोग ज्ञान पेलते हैं। सोशल मीडिया ज्ञान पेलने का सबसे अच्छा प्लेटफार्म बन गया है। यहां मौजूद हर व्यक्ति राजनीति और प्रेम शास्त्र का जीता जागता इनसाइक्लोपीडिया है। इन ज्ञानियों कुछ लोग मौलिक ज्ञान की रचना करते हैं, बाकी बड़े-बड़े ज्ञानी फिर उसको चेपना शुरू करते हैं। कई लोग दूसरों के ज्ञान को भी चेपकर झट से उसे अपना बना लेते हैं।
मेरी तो समझ में नहीं आता कि कई सारे ज्ञानी हर पांच मिनट में कहां से नया ज्ञान चेप देते हैं। पता नहीं वो कुल्ला मंजन कुछ करते भी हैं या बस फेसबुक पर महानता का परिचय ही देते रहते हैं। जो बातें लोगों को अपनी डायरी में लिखनी चाहिए वो भी ज्ञान बनाकर फेसबुक पर चेपने के बाद लाइक और कमेंट का इंतजार करने लग जाते हैं। कभी-कभी ज्ञान बघारा जाए तो बात समझ में आती है लेकिन 24 घंटे ज्ञानी मोड में रहने से फिर लोग उसके ज्ञान को अनदेखा करना शुरू कर देते हैं। कई लोग किसी शायर का शेर चेप लेते हैं और इस तरह प्रस्तुत करते हैं जैसे ये उन्होंने ही लिखा हो। क्रेडिट इसलिए नहीं देते कि किसी को पता होगा तो ठीक, नहीं तो हो सकता है कोई उन्हे ही महान शायर समझ ले। कुछ लोग कभी-कभी मौका देखकर एक दो लाइन पोस्ट करते हैं और अगली बार जब वे फेसबुक खोलकर देखते हैं तो तब तक कई लोग उसी ज्ञान को अपने नाम से चेप चुके होते हैं। फेसबुक की दुनिया में कवि और शायरों की कमी नहीं है। कुछ शायर लोग अपनी छोटी बड़ी कविताओं की भड़ास फेसबुक पर निकालते रहते हैं और दूसरों को भी चिपकाते रहते हैं। कुछ मंचीय कवि अपनी कविसम्मेलन और मुशायरों की फोटो लगाकर बेचारे फेसबुकिया शायरों को चिढ़ाते रहते हैं। अच्छा, यहां शायर लिखे तो लोग बमुश्किल लाइक करके पीछा छुड़ा लेते हैं और अगर लिखने वाली शायरा निकली, तो फिर देखिए कमेंट। लाइन लग जाती है। कितने लोग तो कमेंट में ही अपनी पूरी कविता झोर देते हैं। दूसरी तरफ बेचारे शायर के शेर को लोग लाइक नहीं भी करते हैं, तो भी उठाकर चुपचाप अपनी वाल पर चिपका लेते हैं।
ज्ञान की इस दुनिया में सुंदरता का मुकाबला भी चलता रहता है। कई लोगों की सुंदरता जब साबित नहीं हो पाती है तो वे किसी लड़के की वाल से फोटो लेकर पोस्ट करते हैं जिसमें उनकी फोटो का इस्तेमाल होता है। अब सिलसिला शुरू होता है अपने आप को विश्वसुंदरी साबित करने का। अपने आपको मासूम और दूसरों को अपराधी साबित करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। इस दुनिया में अधिकतर लोग भ्रम में हैं कि उनके फेसबुक पर ज्ञान पेलने की वजह से ही लोग जिंदा हैं। कभी कभी वे पोस्ट में लिखते हैं कि फलानी व्यस्तता की वजह से कुछ दिन फेसबुक पर नहीं आ सकेंगे। कष्ट के लिए खेद है। माफ कीजिएगा। अरे भइया जाइए ना आप, हम आपके बिना भी रह लेंगे। यहां ज्ञान पेलने वालों की कोई कमी थोड़ी ही है।

फेसबुक पर विभिन्न् विषयों के विशेषज्ञ भी उपलब्ध हैं। यहां राजनीति के सभी ज्ञाता हैं लेकिन केवल एक ऐंगल से। जो बुद्धिजीवी हैं वो आंख मूंदकर मोदी का विरोध करते हैं और जो भक्त हैं आंख मूंदकर सपोर्ट करते हैं। दोनो ही विचारकों में कोई खास अंतर नहीं है। दुनिया के लगभग सारे कॉम्पिटिशन अब फेसबुक के लाइक और कमेंट के हिसाब से ही निर्धारित होते हैं। जिसके जितने फ्रेंड हैं वो उतना बुद्धिमान है। अगर आपने कुछ लिखा और उसपर ज्यादा लाइक नहीं आए तो समझो आप बेकार हैं। इसी लाइक और कमेंट के चक्कर में लोग फेसबुक पर लिंग परिवर्तन तक कर लेते हैं। बस अकाउंट लड़की के नाम और फोटो से बना लेने के बाद लो लाइक लो कमेंट। पिछले दिनों एक मोहतरमा ने फेसबुक पर एक कविता पोस्ट की जिसका कोई मतलब नहीं था। शायद वो भी ऐसा करके मजे ले रही होंगी। लेकिन कमेंट बॉक्स तारीफों से पट चुका था। ये कमेंट बाज लोग जल्दी ही कविता की छीछालेदर करने पर उतारू हैं। खैर लोगों यह कहना भी कहना गलत नहीं है कि फेसबुक बना ही किसलिए है। तो खूब ज्ञान बघारते रहिए। हम झेलने के लिए तैयार हैं। अगर नहीं झेलेंगे तो हमें भी पिछड़ों की श्रेणी में डाल दिया जाएगा।

मंगलवार, 15 मार्च 2016

बोलना तो पड़ेगा जनाब

              Image result for speakingसाभार: guiwonglong.wordpress.com
अपने आप को सुर्खियों में रखने के लिए समय-समय पर कुछ बेतुका बोलना जरूरी होता है। हमारे देश में कुछ करने वालों को कम सुर्खियां मिलती हैं लेकिन ज्यादा बोलने वालों को अक्सर वरीयता दी जाती है। आजकल देश की चिंता करने वालों की तादात बढ़ गई है। इसका फायदा कई बड़बोले लोग भी उठा लेते हैं। जितने शब्द भारत माता की जय में नहीं होते हैं उससे कहीं ज्यादा ऊर्जा वो इसका विरोध करने में व्यय कर देते हैं। भारत माता की जय बोलने या न बोलने से भला भारत के विकास में क्या सहयोग मिलेगा, यह बात समझना आसान नहीं है। कुल मिलाकर अपने आपको देशभक्त साबित करने की एक होड़ लग गई है। कोई भारत माता की जय बोलकर देशभक्त बनना चाहता है तो कोई न बोलकर अपने आप को असली देशभक्त बता रहा है। चिंता तो तब ज्यादा हो जाती है जब लोग दूसरों को भी देशभक्त बनाने का ठेका ले लेते हैं। और आजकल ठेका लेने और देने वाले लोग अक्सर फँस जाते हैं। हाल ही में यादव सिंह और छगन भुजबल भी फँस गए। खतरा उन पर भी है जो देशभक्त बनाने का ठेका ले रहे हैं।
     अल्पसंख्यकों की भलाई का ढिंढोरा पीटने वाले लोग भी जब देशभक्ति के झंखाड़ में फंस जाते है तो थोड़ा दुख जरूर होता है। ऐसा लगता है उनको अपने मतलब का मुद्दा मिल गया हो। विकास के मुद्दे पर तो किसी का एकाधिकार है इसलिए उससे छेड़छाड़ करना ठीक नहीं है। असल में ये दोनों ही लोग जो अपने आपको देशभक्त साबित कर रहे हैं, एक दूसरे के पूरक हैं। अगर इनमें से कोई एक न हो तो इन्हे अपनी देशभक्ती साबित करने में नानी याद आ जाए। नेता होने से अच्छा था कि ये दोनों गुट के लोग अपनी फुटबॉल टीम बना लेते और बॉल एक दूसरे के पाले में फेंकते रहते। देशभक्ति की पूरी एक पटकथा तैयार हो गई है जिसमें कलाकार अपने अभिनय को दमदार बनाने के लिए अक्सर हेरफेर कर लेते हैं। चाकू और खंजर की बात करने से बात असरदार हो जाती है इसलिए कलाकार नेतागण अपने संवादों में बिलावज़ह भी हथियारों का ज़िक्र कर लेते हैं। वैसे तो इनकी ज़ुबान भी हथियार से कम नहीं है फिर भी चाकू खंजर बोलने से ज़ुबान की धार दोगुनी हो जाती है।


                                                         

बुधवार, 27 जनवरी 2016

आख़िर किस ओर जा रहा है हमारा युवा भारत?

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                       चित्र साभार:kenfolios.com
चेन्नई से 170 किलोमीटर दूर वेल्लुपुरम में लकड़ी के साइन बोर्ड पर बड़-बड़े अक्षरों में लिखा मेडिकल कॉलेज का नाम। बिना बाउंड्री का यह कॉलेज जहां न तो पर्याप्त कमरे हैं और न ही कोई लैबोरेटरी। पढ़ाने के लिए शिक्षक भी नहीं हैं लेकिन एक साल की फीस पाँच लाख रुपए है। पिछले दिनों यहाँ पढ़ने वाली तीन छात्राओं ने कुएं में कूदकर आत्महत्या कर ली। आत्महत्या का कारण कॉलेज की तरफ से फीस के लिए दबाव था। दुनिया भर में आत्महत्या करने वालों का 17 प्रतिशत हिस्सा हमारे देश का है। कुल आत्महत्या करने वालों में 34 प्रतिशत लोग 15 से 34 वर्ष के आयुवर्ग के होते हैं। हमारे देश में हजारों युवक अवसाद के कारण हर साल आत्महत्या कर लेते हैं। अवसाद का कारण आर्थिक बदहाली, परीक्षाओं में असफलता और बेरोजगारी होती है। ब्रिटिश जर्नल लैंसेट के अनुसार 2004 से 2008 के बीच लगभग 16000 युवकों ने आत्महत्या की। जर्नल के अनुसार पूर्वी भारत और दक्षिण भारत में अपेक्षाकृत ज्यादा आत्महत्या होती हैं। तमिलनाडु के वेल्लोर में एक लाख लोगों में लगभग 148 महिलाएं और 58 पुरुष विभिन्न कारणों से आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं।

पिछले कुछ सालों में इंजिनीयरिंग और मेडिकल कॉलेजों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। प्राइवेट कॉलेजों पर सरकार की तरफ से नियमन में कोई खास मजबूती न होने के कारण ऐसे कॉलेज मनमाने तरीके से एडमीशन की प्रक्रिया करते हैं और ज्यादा फीस भी वसूलते हैं। माँ बाप अपने बच्चों को इंजीनियर और डॉक्टर बनाने की चाह में भारी फीस भरकर ऐसे क़ॉलेजों में प्रवेश दिलाते हैं। अधिकतर छात्र यहाँ से जैसै तैसे डिग्री तो ले लेते हैं लेकिन नौकरी नहीं मिल पाती है। ऐसे में उनके हाथ लगती है हताशा जो कि अवसाद का करण बनती है। भारत में कुल आत्महत्या करने वालों में हर साल दो से लेकर बारह प्रतिशत तक ऐसे युवा होते हैं जो अवसाद से ग्रसित होते हैं। एक अध्ययन के अनुसार 1987 से 2007 के बीच आत्महत्या में आठ से दस फीसदी तक वृद्धि दर्ज की गई है। अकेले तमिलनाडु में ही  2012 में आत्महत्या के 12.5 प्रतिशत केस सामने आए। वर्तमान में हमारे देश में किसान और युवा अनेक कारणों से आत्महत्या के लिए मजबूर होते हैं। विभिन्न शोध संस्थान लगातार अपने चौकाने वाले आत्महत्या के आकड़ों से सरकार और प्रशासन का ध्यान इस ओर खींचने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन हालत दिनों दिन चिंताजनक होती जा रही है। 

बुधवार, 20 जनवरी 2016

अल्पसंख्यक संस्थानों पर संकट के बादल

Image result for jamia millia islamia campusहमारे देश में सरकारी स्कूलों को कितनी भी हीन भावना के साथ देखा जाता हो लेकिन सरकारी विश्वविद्यालय में पढ़ना सभी विद्यार्थियों का सपना होता है। खासकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों की तरफ छात्रों का आकर्षण ज्यादा होता है। ऐसे ही विश्वविद्यालय में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया इस्लामिया भी शुमार है। दिल्ली में स्थित जामिया 1920 में एएमयू के कुछ क्रांतिकारी छात्रों के द्वारा स्थापित किया गया था। इसका मक्सद शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करके नवयुवकों को स्वतंत्रता संग्राम के लिए तैयार करना था। गांधी जी ने भी जामिया का सहयोग किया और अपने बेटे देवदास को यहां बिना वेतन के शिक्षण कार्य के लिए भेजा। वर्तमान में विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे को लेकर मुद्दा गरमाया है। जामिया को 1988 में संसदीय अधिनियम के तहत राष्ट्रीकृत किया गया। यूपीए सरकार ने 2011 में जामिया को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा दे दिया। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने पिछले दिनों एक सभा में जामिया के अल्पसंख्यक संस्थान होने पर आपत्ति जताई। तभी से जामिया के अल्पसंख्यक दर्जा छीनने की बहस तेज हो गई। केंद्रीय विश्वविद्यालय होने के कारण सरकार जामिया और एएमयू को वत्तीय सहायता देती है। संविधान के अनुसार किसी भी धर्म आधारित संस्था को सरकार वित्तीय सहायता नहीं दे सकती है। भारत एक पंथ निरपेक्ष राष्ट्र है और धर्म के आधार पर आरक्षण देना संवैधानिक नहीं है। लेकिन जब हम अपने देश के मुस्लिमों की शिक्षा और सरकारी नौकरियों पर नज़र डालते हैं तो स्थिति चिंताजनक है। अधिकतर मुसलमानों की शिक्षा मदरसों तक ही सीमित रह जाती है। ऐसे में अगर मुस्लिमों को किसी विश्वविद्यालय में 50 प्रतिशत आरक्षण दिया जाता है तो नीयत के आधार पे इसे गलत नहीं कहा जा सकता। हमारे देश में 25 में से एक मुस्लिम विद्यार्थी ही स्नातक कर पाता है और 50 में से एक ही स्नाकोत्तर शिक्षा के लिए जाता है। भारत की सेना में मुस्लिमों का प्रतिशत 3 से भी कम है। प्रशासनिक सेवाओं में भी स्थिति अच्छी नहीं है। ऐसे में किसी विश्वविद्यालय में अगर आरक्षण दिया जाता है तो इसे किसी के साथ अन्याय नहीं कहा जा सकता है। दूसरी ओर सरकार दलितों के अधिकार को संरक्षित करने की बात कर रही है। जामिया में भारत सरकार के आरक्षण नियम के अंतर्गत जाति के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जाता है। वर्तमान सरकार को वैसे भी अल्पसंख्यकों की विरोधी माना जाता है और अगर किसी संस्थान के अल्पसंख्यक दर्जे को समाप्त करने की बात की जाए तो विरोध होना तो लाजमी है। हालांकि कांग्रेस पार्टी की ओर से इसपर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं की गई है। जामिया को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाते समय अधिनियम में कहीं भी धर्म आधारित आरक्षण की बात नहीं की गई थी। इसे पिछली यूपीए सरकार की भूल कहा जा सकता है। जामिया में लगभग 15000 छात्र हर साल विभिन्न विषयों में प्रवेश लेते हैं। यहां 50 प्रतिशत में केवल मुस्लिमों को आरक्षण दिया जाता है और बाकी 50 प्रतिशत में सभी अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करते हैं। भारत सरकार के आरक्षण नियम के अनुसार यहां आरक्षण नहीं दिया जाता है। सरकार दलितों को उनका अधिकार दिलाने और संविधान का पालन करने का हवाला देकर जामिया से धार्मिक आरक्षण हटाना चाहती है। यह आवश्यक नहीं है कि अगर किसी राष्ट्रीय विश्विविद्यालय का नाम किसी धर्म विशेष मे जुड़ा हो तो वहां उस धर्म के लोगों को अतिरिक्त सुविधाएं दी जाए। यह पंथनिरपेक्षता के विरुद्ध है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय इसका उदाहरण हो सकता है। यहां धर्म के आधार पर कोई आरक्षण नहीं दिया जाता है। इसी तरह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया इस्लामिया को भी संवैधानिक रूप से धर्म आधारित आरक्षण सही नहीं है। सरकार सबका साथ सबका विकास की बात करके और दलितों को अपने पक्ष में करके धर्म आधारित आरक्षण को ख़तम करना चाहती है। मुस्लिमों में इस बात पर असंतोष है। एक सच यह भी है कि निचले तबके के मुसलमान आज भी ऐसे संस्थानों से वंचित हैं। सरकार का यह कदम पूरे एक समुदाय को सरकार के विरोध में खड़ा कर सकता है। ऐसे किसी भी कदम से पहले सरकार को अल्पसंख्यकों की शिक्षा के लिए ऐसी योजनाएं लानी चाहिए जो उन्हे विकास के लिए आश्वस्त कर सकें।




शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

मानहानि से बढ़कर है सामानहानि

                   
Image result for baggage loss insuranceआजकल मानहानि का दैत्य किसी का भी पीछा कर सकता है। इस समय जितनी जरुरत ठंड से बचने की है उतनी ही मानहानि से बचने की भी है। वास्तव में किसी तीसरे व्यक्ति की नज़र में जब किसी पर कीचड़ उछाला जाता है तो मानहानि होती है। एक आम आदमी की मानहानि अक्सर सड़क पर चलते हुए भी हो जाती है जब बगल से निकलने वाली कार उस पर कीचड़ उछाल कर रफूचक्कर हो जाती है। बड़े-बड़े लोग तो करोड़ों के मानहानि के केस दाग देते हैं लेकिन बेचारा आम आदमी खड़ा - खड़ा सोचता रह जाता है कि वह इल्जाम कार ड्राइवर पर लगाए या ऊबड़ खाबड़ सड़क पर ।
मानहानि से भी बड़ी समस्या सामानहानि की है। सफ़र के दौरान अगर कोई ठंडी हवा के झोकों के साथ एक नींद लेना चाहे तो उसे डर होता है कि कोई उसका सामान लेकर ही चम्पत न हो जाए। हाल ही में स्पाइस जेट के विमान में एक यात्री का सामान चोरी हो गया। काफी जद्दोजेहद के बाद उसे साठ हजार का हर्जाना दिया गया। जब विमान से सामान गायब हो जाता है तो ट्रेन का क्या भरोसा किया जाए। अजी यहां तो इंसान का ही भरोसा नहीं है कि कब गायब हो जाए सामान बेचारा तो फिर भी निर्जीव ठहरा। पिछले दिनों लखनऊ से दिल्ली के सफ़र के दौरान रात में कोई मेरा भी बैग लेकर नौ दो ग्यारह हो गया। एक तरफ दुख था कि सामान चला गया और दूसरी तरफ खुशी थी कि थोड़ा बोझ कम हो गया। पद्मश्री गोपालदास नीरज ने कहा है ”जितना कम सामान रहेगा, सफ़र उतना आसान रहेगा।” कितना भी कम सामान लेकर चलें लेकिन एक दो जोड़ी कपड़े तो रखने ही पड़ते हैं और अगर वो भी कोई ले उड़े तो इंसान को नंगई करनी पड़ती है। अक्सर रेलवे स्टेशन पर अनाउंस होता है कि अपने सामान की हिफाज़त स्वयं करें। इस विषय पर हम पहले से  ही गम्भीर होते हैं क्योंकि यहां की सुरक्षा व्यवस्था पर हमें पूरा भरोसा है कि वह समय पर कभी काम नहीं आएगी। यह परिस्थिति हमें  आत्मनिर्भर बनाती है। फिर भी सामानहानि की समस्या गम्भीर है। इसके लिए भी सख्त कानून  बनाने की जरूरत है जिससे अपने साथ सामान की  भी सुरक्षा सुनुश्चित की जा सके।

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

आधा इतवार

Image result for lodhi gardenकई दिनों से ब्लॉग लिखने का समय नहीं मिल रहा है। आज एक परीक्षा थी और शाम को एक कार्यक्रम में जाना है तो सोंचा कि बाकी का समय थोड़ा सुकून से गुजारा जाए, इसलिए अपना आधा इतवार बिताने लोधी गार्डन आ गया। यहां आ के एसा लगा कि वाकई में हमारे देश में लोकतंत्र है। यहां न तो कोई बीफ की बहस थी और न कोई सम्मान लौटाने का किस्सा। बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक सभी मस्ती करते दिखे। यहां चिड़ियों और इंसानों की भीड़ में कोई खास अंतर नहीं दिखा। कोई नुक्कड़ नाटक कर रहा था तो कोई गाना गा रहा था। यहाँ कोई भी खुल कर गाना गा सकता है चाहे वो किसी भी देश का हो। शायद यहाँ कोई स्याही लेकर भी नहीं आता है।

यहाँ प्रेमी युगल भी थोड़ा सुकून से बैठते हैं और दुनिया भर की तू-तू मैं-मैं से दूर प्यार की दो बातें करते हैं। दिल्ली की इस भीड़-भाड़ में अब ठीक से रूठना मनाना भी तो नहीं हो पाता है और अगर ऐसा कुछ होता भी है तो मोबाइल पर होता है। प्रेमिका अगर रूठ जाती है तो मोबाइल स्विच ऑफ कर देती है, अब बेचारा प्रेमी उसे मनाए भी तो कैसे। खैर ये इतवार की छुट्टी और यह लोधी गार्डन प्यार को जगाए रखने की पूरी सहूलियत देता है। यहाँ जितनी तरह की वनस्पतियां हैं उतनी ही तरह के लोग भी आते हैं। सभी जमीन पर बैठ कर खाना खाते हैं। यहाँ भीड़ तो खूब होती है लेकिन कोई भी आपकी खाने पीने की निजता पर हमला नहीं करता है। ऐसी जगहें वाकई में थोड़ी देर के लिए दुनिया दारी को भुला देती हैं। यहाँ बैठकर प्यार के दो पल बिताना बहुत अच्छा है लेकिन यह पल बैठकर बिताए जाएं तो ज्यादा अच्छा है। पार्क को बेडरूम बना देना भी ठीक नहीं है। हो सकता है कि यह बात मुझे ही अजीब लगती हो क्योंकि मैं गाँव का रहने वाला एक सामान्य व्यक्ति हूँ लेकिन मैने एक से एक मॉडर्न मां बाप को भी अपने बच्चों का ध्यान उधर से हटाने की कोशिश करते हुए देखा है। बच्चों को झाड़ियों की तरफ से जबरदस्ती खींच कर खुले में ले जाते हुए देखा है। वो तो काफी मॉडर्न हैं फिर भी पता नहीं क्यों असहज महसूस करते थे। लोकतंत्र अपनी जगह है और सबकी भावनाएं अपनी जगह हैं। खैर बरदाश्त करना भी लोकतंत्र को मजबूत करने का रास्ता हो सकता है। शायद यही कारण है कि यहाँ अमन बरकरार है। काश हमारा देश भी इसी पार्क की तरह हो जाता जहाँ कोई किसी की निजी ज़िंदगी में दखल भी न देता और थोड़ा बहुत दूसरों को बरदाश्त भी कर लेता। ये आधा इतवार बहुत कुछ सिखा गया।