अल्पसंख्यक संस्थानों पर संकट के बादल
हमारे देश में
सरकारी स्कूलों को कितनी भी हीन भावना के साथ देखा जाता हो लेकिन सरकारी
विश्वविद्यालय में पढ़ना सभी विद्यार्थियों का सपना होता है। खासकर केंद्रीय
विश्वविद्यालयों की तरफ छात्रों का आकर्षण ज्यादा होता है। ऐसे ही विश्वविद्यालय
में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया इस्लामिया भी शुमार है।
दिल्ली में स्थित जामिया 1920 में एएमयू के कुछ क्रांतिकारी छात्रों के द्वारा
स्थापित किया गया था। इसका मक्सद शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करके नवयुवकों को
स्वतंत्रता संग्राम के लिए तैयार करना था। गांधी जी ने भी जामिया का सहयोग किया और
अपने बेटे देवदास को यहां बिना वेतन के शिक्षण कार्य के लिए भेजा। वर्तमान में
विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे को लेकर मुद्दा गरमाया है। जामिया
को 1988 में संसदीय अधिनियम के तहत राष्ट्रीकृत किया गया। यूपीए सरकार ने 2011 में
जामिया को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा दे दिया। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री
स्मृति ईरानी ने पिछले दिनों एक सभा में जामिया के अल्पसंख्यक संस्थान होने पर
आपत्ति जताई। तभी से जामिया के अल्पसंख्यक दर्जा छीनने की बहस तेज हो गई। केंद्रीय
विश्वविद्यालय होने के कारण सरकार जामिया और एएमयू को वत्तीय सहायता देती है।
संविधान के अनुसार किसी भी धर्म आधारित संस्था को सरकार वित्तीय सहायता नहीं दे
सकती है। भारत एक पंथ निरपेक्ष राष्ट्र है और धर्म के आधार पर आरक्षण देना
संवैधानिक नहीं है। लेकिन जब हम अपने देश के मुस्लिमों की शिक्षा और सरकारी
नौकरियों पर नज़र डालते हैं तो स्थिति चिंताजनक है। अधिकतर मुसलमानों की शिक्षा मदरसों
तक ही सीमित रह जाती है। ऐसे में अगर मुस्लिमों को किसी विश्वविद्यालय में 50
प्रतिशत आरक्षण दिया जाता है तो नीयत के आधार पे इसे गलत नहीं कहा जा सकता। हमारे
देश में 25 में से एक मुस्लिम विद्यार्थी ही स्नातक कर पाता है और 50 में से एक ही
स्नाकोत्तर शिक्षा के लिए जाता है। भारत की सेना में मुस्लिमों का प्रतिशत 3 से भी
कम है। प्रशासनिक सेवाओं में भी स्थिति अच्छी नहीं है। ऐसे में किसी विश्वविद्यालय
में अगर आरक्षण दिया जाता है तो इसे किसी के साथ अन्याय नहीं कहा जा सकता है। दूसरी
ओर सरकार दलितों के अधिकार को संरक्षित करने की बात कर रही है। जामिया में भारत
सरकार के आरक्षण नियम के अंतर्गत जाति के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जाता है।
वर्तमान सरकार को वैसे भी अल्पसंख्यकों की विरोधी माना जाता है और अगर किसी
संस्थान के अल्पसंख्यक दर्जे को समाप्त करने की बात की जाए तो विरोध होना तो लाजमी
है। हालांकि कांग्रेस पार्टी की ओर से इसपर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं की गई है।
जामिया को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाते समय अधिनियम में कहीं भी धर्म आधारित
आरक्षण की बात नहीं की गई थी। इसे पिछली यूपीए सरकार की भूल कहा जा सकता है।
जामिया में लगभग 15000 छात्र हर साल विभिन्न विषयों में प्रवेश लेते हैं। यहां 50
प्रतिशत में केवल मुस्लिमों को आरक्षण दिया जाता है और बाकी 50 प्रतिशत में सभी
अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करते हैं। भारत सरकार के आरक्षण नियम के अनुसार यहां
आरक्षण नहीं दिया जाता है। सरकार दलितों को उनका अधिकार दिलाने और संविधान का पालन
करने का हवाला देकर जामिया से धार्मिक आरक्षण हटाना चाहती है। यह आवश्यक नहीं है
कि अगर किसी राष्ट्रीय विश्विविद्यालय का नाम किसी धर्म विशेष मे जुड़ा हो तो वहां
उस धर्म के लोगों को अतिरिक्त सुविधाएं दी जाए। यह पंथनिरपेक्षता के विरुद्ध है।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय इसका उदाहरण हो सकता है। यहां धर्म के आधार पर कोई
आरक्षण नहीं दिया जाता है। इसी तरह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया
मिल्लिया इस्लामिया को भी संवैधानिक रूप से धर्म आधारित आरक्षण सही नहीं है। सरकार
सबका साथ सबका विकास की बात करके और दलितों को अपने पक्ष में करके धर्म आधारित
आरक्षण को ख़तम करना चाहती है। मुस्लिमों में इस बात पर असंतोष है। एक सच यह भी है
कि निचले तबके के मुसलमान आज भी ऐसे संस्थानों से वंचित हैं। सरकार का यह कदम पूरे
एक समुदाय को सरकार के विरोध में खड़ा कर सकता है। ऐसे किसी भी कदम से पहले सरकार
को अल्पसंख्यकों की शिक्षा के लिए ऐसी योजनाएं लानी चाहिए जो उन्हे विकास के लिए
आश्वस्त कर सकें।
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