बुधवार, 27 जनवरी 2016

आख़िर किस ओर जा रहा है हमारा युवा भारत?

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                       चित्र साभार:kenfolios.com
चेन्नई से 170 किलोमीटर दूर वेल्लुपुरम में लकड़ी के साइन बोर्ड पर बड़-बड़े अक्षरों में लिखा मेडिकल कॉलेज का नाम। बिना बाउंड्री का यह कॉलेज जहां न तो पर्याप्त कमरे हैं और न ही कोई लैबोरेटरी। पढ़ाने के लिए शिक्षक भी नहीं हैं लेकिन एक साल की फीस पाँच लाख रुपए है। पिछले दिनों यहाँ पढ़ने वाली तीन छात्राओं ने कुएं में कूदकर आत्महत्या कर ली। आत्महत्या का कारण कॉलेज की तरफ से फीस के लिए दबाव था। दुनिया भर में आत्महत्या करने वालों का 17 प्रतिशत हिस्सा हमारे देश का है। कुल आत्महत्या करने वालों में 34 प्रतिशत लोग 15 से 34 वर्ष के आयुवर्ग के होते हैं। हमारे देश में हजारों युवक अवसाद के कारण हर साल आत्महत्या कर लेते हैं। अवसाद का कारण आर्थिक बदहाली, परीक्षाओं में असफलता और बेरोजगारी होती है। ब्रिटिश जर्नल लैंसेट के अनुसार 2004 से 2008 के बीच लगभग 16000 युवकों ने आत्महत्या की। जर्नल के अनुसार पूर्वी भारत और दक्षिण भारत में अपेक्षाकृत ज्यादा आत्महत्या होती हैं। तमिलनाडु के वेल्लोर में एक लाख लोगों में लगभग 148 महिलाएं और 58 पुरुष विभिन्न कारणों से आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं।

पिछले कुछ सालों में इंजिनीयरिंग और मेडिकल कॉलेजों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। प्राइवेट कॉलेजों पर सरकार की तरफ से नियमन में कोई खास मजबूती न होने के कारण ऐसे कॉलेज मनमाने तरीके से एडमीशन की प्रक्रिया करते हैं और ज्यादा फीस भी वसूलते हैं। माँ बाप अपने बच्चों को इंजीनियर और डॉक्टर बनाने की चाह में भारी फीस भरकर ऐसे क़ॉलेजों में प्रवेश दिलाते हैं। अधिकतर छात्र यहाँ से जैसै तैसे डिग्री तो ले लेते हैं लेकिन नौकरी नहीं मिल पाती है। ऐसे में उनके हाथ लगती है हताशा जो कि अवसाद का करण बनती है। भारत में कुल आत्महत्या करने वालों में हर साल दो से लेकर बारह प्रतिशत तक ऐसे युवा होते हैं जो अवसाद से ग्रसित होते हैं। एक अध्ययन के अनुसार 1987 से 2007 के बीच आत्महत्या में आठ से दस फीसदी तक वृद्धि दर्ज की गई है। अकेले तमिलनाडु में ही  2012 में आत्महत्या के 12.5 प्रतिशत केस सामने आए। वर्तमान में हमारे देश में किसान और युवा अनेक कारणों से आत्महत्या के लिए मजबूर होते हैं। विभिन्न शोध संस्थान लगातार अपने चौकाने वाले आत्महत्या के आकड़ों से सरकार और प्रशासन का ध्यान इस ओर खींचने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन हालत दिनों दिन चिंताजनक होती जा रही है। 

बुधवार, 20 जनवरी 2016

अल्पसंख्यक संस्थानों पर संकट के बादल

Image result for jamia millia islamia campusहमारे देश में सरकारी स्कूलों को कितनी भी हीन भावना के साथ देखा जाता हो लेकिन सरकारी विश्वविद्यालय में पढ़ना सभी विद्यार्थियों का सपना होता है। खासकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों की तरफ छात्रों का आकर्षण ज्यादा होता है। ऐसे ही विश्वविद्यालय में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया इस्लामिया भी शुमार है। दिल्ली में स्थित जामिया 1920 में एएमयू के कुछ क्रांतिकारी छात्रों के द्वारा स्थापित किया गया था। इसका मक्सद शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करके नवयुवकों को स्वतंत्रता संग्राम के लिए तैयार करना था। गांधी जी ने भी जामिया का सहयोग किया और अपने बेटे देवदास को यहां बिना वेतन के शिक्षण कार्य के लिए भेजा। वर्तमान में विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे को लेकर मुद्दा गरमाया है। जामिया को 1988 में संसदीय अधिनियम के तहत राष्ट्रीकृत किया गया। यूपीए सरकार ने 2011 में जामिया को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा दे दिया। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने पिछले दिनों एक सभा में जामिया के अल्पसंख्यक संस्थान होने पर आपत्ति जताई। तभी से जामिया के अल्पसंख्यक दर्जा छीनने की बहस तेज हो गई। केंद्रीय विश्वविद्यालय होने के कारण सरकार जामिया और एएमयू को वत्तीय सहायता देती है। संविधान के अनुसार किसी भी धर्म आधारित संस्था को सरकार वित्तीय सहायता नहीं दे सकती है। भारत एक पंथ निरपेक्ष राष्ट्र है और धर्म के आधार पर आरक्षण देना संवैधानिक नहीं है। लेकिन जब हम अपने देश के मुस्लिमों की शिक्षा और सरकारी नौकरियों पर नज़र डालते हैं तो स्थिति चिंताजनक है। अधिकतर मुसलमानों की शिक्षा मदरसों तक ही सीमित रह जाती है। ऐसे में अगर मुस्लिमों को किसी विश्वविद्यालय में 50 प्रतिशत आरक्षण दिया जाता है तो नीयत के आधार पे इसे गलत नहीं कहा जा सकता। हमारे देश में 25 में से एक मुस्लिम विद्यार्थी ही स्नातक कर पाता है और 50 में से एक ही स्नाकोत्तर शिक्षा के लिए जाता है। भारत की सेना में मुस्लिमों का प्रतिशत 3 से भी कम है। प्रशासनिक सेवाओं में भी स्थिति अच्छी नहीं है। ऐसे में किसी विश्वविद्यालय में अगर आरक्षण दिया जाता है तो इसे किसी के साथ अन्याय नहीं कहा जा सकता है। दूसरी ओर सरकार दलितों के अधिकार को संरक्षित करने की बात कर रही है। जामिया में भारत सरकार के आरक्षण नियम के अंतर्गत जाति के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जाता है। वर्तमान सरकार को वैसे भी अल्पसंख्यकों की विरोधी माना जाता है और अगर किसी संस्थान के अल्पसंख्यक दर्जे को समाप्त करने की बात की जाए तो विरोध होना तो लाजमी है। हालांकि कांग्रेस पार्टी की ओर से इसपर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं की गई है। जामिया को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाते समय अधिनियम में कहीं भी धर्म आधारित आरक्षण की बात नहीं की गई थी। इसे पिछली यूपीए सरकार की भूल कहा जा सकता है। जामिया में लगभग 15000 छात्र हर साल विभिन्न विषयों में प्रवेश लेते हैं। यहां 50 प्रतिशत में केवल मुस्लिमों को आरक्षण दिया जाता है और बाकी 50 प्रतिशत में सभी अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करते हैं। भारत सरकार के आरक्षण नियम के अनुसार यहां आरक्षण नहीं दिया जाता है। सरकार दलितों को उनका अधिकार दिलाने और संविधान का पालन करने का हवाला देकर जामिया से धार्मिक आरक्षण हटाना चाहती है। यह आवश्यक नहीं है कि अगर किसी राष्ट्रीय विश्विविद्यालय का नाम किसी धर्म विशेष मे जुड़ा हो तो वहां उस धर्म के लोगों को अतिरिक्त सुविधाएं दी जाए। यह पंथनिरपेक्षता के विरुद्ध है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय इसका उदाहरण हो सकता है। यहां धर्म के आधार पर कोई आरक्षण नहीं दिया जाता है। इसी तरह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया इस्लामिया को भी संवैधानिक रूप से धर्म आधारित आरक्षण सही नहीं है। सरकार सबका साथ सबका विकास की बात करके और दलितों को अपने पक्ष में करके धर्म आधारित आरक्षण को ख़तम करना चाहती है। मुस्लिमों में इस बात पर असंतोष है। एक सच यह भी है कि निचले तबके के मुसलमान आज भी ऐसे संस्थानों से वंचित हैं। सरकार का यह कदम पूरे एक समुदाय को सरकार के विरोध में खड़ा कर सकता है। ऐसे किसी भी कदम से पहले सरकार को अल्पसंख्यकों की शिक्षा के लिए ऐसी योजनाएं लानी चाहिए जो उन्हे विकास के लिए आश्वस्त कर सकें।




शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

मानहानि से बढ़कर है सामानहानि

                   
Image result for baggage loss insuranceआजकल मानहानि का दैत्य किसी का भी पीछा कर सकता है। इस समय जितनी जरुरत ठंड से बचने की है उतनी ही मानहानि से बचने की भी है। वास्तव में किसी तीसरे व्यक्ति की नज़र में जब किसी पर कीचड़ उछाला जाता है तो मानहानि होती है। एक आम आदमी की मानहानि अक्सर सड़क पर चलते हुए भी हो जाती है जब बगल से निकलने वाली कार उस पर कीचड़ उछाल कर रफूचक्कर हो जाती है। बड़े-बड़े लोग तो करोड़ों के मानहानि के केस दाग देते हैं लेकिन बेचारा आम आदमी खड़ा - खड़ा सोचता रह जाता है कि वह इल्जाम कार ड्राइवर पर लगाए या ऊबड़ खाबड़ सड़क पर ।
मानहानि से भी बड़ी समस्या सामानहानि की है। सफ़र के दौरान अगर कोई ठंडी हवा के झोकों के साथ एक नींद लेना चाहे तो उसे डर होता है कि कोई उसका सामान लेकर ही चम्पत न हो जाए। हाल ही में स्पाइस जेट के विमान में एक यात्री का सामान चोरी हो गया। काफी जद्दोजेहद के बाद उसे साठ हजार का हर्जाना दिया गया। जब विमान से सामान गायब हो जाता है तो ट्रेन का क्या भरोसा किया जाए। अजी यहां तो इंसान का ही भरोसा नहीं है कि कब गायब हो जाए सामान बेचारा तो फिर भी निर्जीव ठहरा। पिछले दिनों लखनऊ से दिल्ली के सफ़र के दौरान रात में कोई मेरा भी बैग लेकर नौ दो ग्यारह हो गया। एक तरफ दुख था कि सामान चला गया और दूसरी तरफ खुशी थी कि थोड़ा बोझ कम हो गया। पद्मश्री गोपालदास नीरज ने कहा है ”जितना कम सामान रहेगा, सफ़र उतना आसान रहेगा।” कितना भी कम सामान लेकर चलें लेकिन एक दो जोड़ी कपड़े तो रखने ही पड़ते हैं और अगर वो भी कोई ले उड़े तो इंसान को नंगई करनी पड़ती है। अक्सर रेलवे स्टेशन पर अनाउंस होता है कि अपने सामान की हिफाज़त स्वयं करें। इस विषय पर हम पहले से  ही गम्भीर होते हैं क्योंकि यहां की सुरक्षा व्यवस्था पर हमें पूरा भरोसा है कि वह समय पर कभी काम नहीं आएगी। यह परिस्थिति हमें  आत्मनिर्भर बनाती है। फिर भी सामानहानि की समस्या गम्भीर है। इसके लिए भी सख्त कानून  बनाने की जरूरत है जिससे अपने साथ सामान की  भी सुरक्षा सुनुश्चित की जा सके।