बुधवार, 8 अप्रैल 2015

पानी की कहानी


मैं पानी हूँ | जब पृथ्वी पर जीवन नहीं था तब भी मैं था | पृथ्वी पर जीवन के शुरुआत करने में मेरे अहम भूमिका रही है | सबसे पहले मेरे गोद में ही जीवन का जन्म हुआ | धरती से लेकर आकाश तक मैं विचरण करता हूँ | समय और परिस्थिति के अनुसार ढल जाना मुझसे अच्छा कौन जानता होगा | मैं कभी तरल रूप में नदियों में कल-कल कर बहता हूँ तो कभी सागर में हवा के साथ हिलोरे लेता हूँ  | कभी वाष्प बनकर धरती अंबर की  करता हूँ ,और कभी बर्फ बनकर पहाड़ों पर ठहर जाता हूँ और विश्राम करता हूँ | न तो मैं जन्मा हूँ और न ही कभी मेरा अंत होता है | मानुष्य भी मेरी ही संतान है क्योंकि उसके पालन पोषण की ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर है | ईश्वर ने मुझे बनाते समय बताया था की तुम्हारा कर्तव्य मनुष्यों की प्यास बुझाना है , और साथ में आगाह भी किया था की मानुषी की प्यास असीम है कहीं ऐसा न हो की स्वार्थवश वह तुम पर हावी हो जाये | मैं सब कुछ जानता हूँ लेकिन मैं अपनी संतानों से बहुत प्रेम करता हूँ |
मेरे अस्तित्व के बिना जीवन का अस्तित्व संभव नहीं है | अगर मैं न होता तो न तो सागर होता ,न नदियां होती ,न हरे भरे वन होते , और न ही जीव जन्तु होते | जब तक मैं धरती पर नहीं आया था तब तक धरती भी अकेलेपन की आग में तप रही थी | धरती को शीतल करने की ज़िम्मेदारी और अनिश्चितकाल तक साथ निभाने की ज़िम्मेदारी भी ईश्वर ने मुझे ही दी | मैंने कभी अपनी संतानों में भेद नहीं किया | मैं सबकी प्यास बुझाना चाहता हूँ | आज तो मेरे संतानों ने मेरी जरूरत और उम्र दोनों का लिहाज करना छोड़ दिया है | धरती से निकालने के बाद , बादलों से बरसने के बाद मेरी भी इच्छा होती है की मैं नदियों में इठलाते हुये कल-कल कर बहूँ ,अपने संतानों के हाल चाल लेते हुये ,उनकी प्यास बुझाते हुये सागर तक पाहुचू , कहीं सरोवर में विश्राम करूँ और अपनी प्यारी सहेली धरती में समा जाऊं | आज मेरी इच्छाए धारी की धरी रह जाती हैं क्योंकि मानुष्य मुझे जहां चाहता है वहीं रोक लेता है | जैसा चाहता है वैसा काम लेता है और मेरी दुर्दशा करके बाहर का रास्ता दिखा देता है | मुझमे सहन शक्ति की कमी नहीं है | इतनी दुर्दशा के बावजूद मैंने कभी मानवता के विपरीत विचार नहीं किया और लगातार परोपकार में लगा हूँ | आज मनुष्य पहले मुझे कुरूप कर देता है और उसके बाद मुझे देख कर मुंह बनाता है | मैं सब कुछ सह लेता हूँ | कभी कभी अपनी संतानों को समझाने के लिए मैं कठोर कदम उठाता हूँ लेकिन यह मेरी मजबूरी होती है | कभी कभी मैं बादलों से फट कर बरस जाता हूँ | कभी नदियों में बाढ़ ला कर सब कुछ बहा ले जाता हूँ | कभी फसलों को तहस नहस कर देता हूँ तो कभी सूखा ला देता हूँ , लेकिन नासमझ मनुष्य मुझे समझ नहीं पाता है और अपनी धुन में मस्त है | मैं डरता हूँ की कहीं मेरी सहनशक्ति जवाब न दे जाये और किसी दिन मैं महाप्रलय में बादल जाऊं | अगर ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब में धरती के सभी स्थानों को छोडकर या तो सागर में सिमट जाऊंगा या फिर पूरी धरती को अपनी आगोश में लेकर जीवन का अंत कर दूंगा | मैं आज भी चाहता हूँ कि मेरी संतान मेरी भावनाओं को समझ जाये और अपनी स्वयं की रक्षा कर ले | हे ईश्वर मेरी संतानों को सदबुद्धि दे |

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